भजन-कीर्तन, सत्संग में इतना जाते हैं फिर भी कष्ट क्यों नहीं मिटते?

भजन-कीर्तन, सत्संग में इतना जाते हैं फिर भी कष्ट क्यों नहीं मिटते?

क्या सत्संग और भक्ति जीवन को बदल नहीं रहे या हम ही नहीं बदलना चाहते?

क्या आपने कभी सोचा है कि कोई व्यक्ति रोज़ मंदिर जाता है, कथा-सत्संग सुनता है, भजन-कीर्तन करता है—फिर भी उसके जीवन में झगड़े, तनाव और कलह कम क्यों नहीं होते? अगर भक्ति का मार्ग इतना शक्तिशाली है, तो यह शांति और समाधान क्यों नहीं ला पा रहा?

यह प्रश्न छोटा नहीं है। यह सिर्फ धार्मिकता पर नहीं, बल्कि हमारी जीवन-पद्धति और समझ पर भी सवाल उठाता है।

सत्संग में शरीर है, मन कहीं और

एक युवक ने प्रश्न किया—"मेरी पत्नी भजन-कीर्तन में रमती हैं, माता-पिता भी प्रवचन सुनते हैं, सत्संग में जाते हैं, लेकिन घर का माहौल फिर भी अशांत क्यों है?" यह सवाल अकेले उसका नहीं, यह हज़ारों घरों की कहानी है, जहाँ धार्मिकता है, पर व्यवहारिकता नहीं।

धार्मिकता को अपनाना एक बात है, और उसे जीना एक बिल्कुल अलग बात।

ज्ञान तभी उपयोगी है जब वह हृदय तक पहुंचे

राजा जनक और ऋषिपुत्र की कथा इसी गूढ़ रहस्य को उजागर करती है।
ऋषिपुत्र ने शास्त्र पढ़ लिए थे, लेकिन लंगोट और धोती के मोह से बाहर नहीं निकल सका। ज्ञान सिर पर रखा रह गया, हृदय तक नहीं पहुंचा।

आज यही स्थिति हमारे साथ हो रही है। हम भजन तो गाते हैं, लेकिन मन की कलुषता नहीं छोड़ते। हम सत्संग में जाते हैं, लेकिन आत्ममंथन नहीं करते।

दोष सत्संग का नहीं, उसे ग्रहण न करने वाले का है

किसी मंदिर में जाने वाला हर व्यक्ति भक्त नहीं होता। कुछ लोग टाइम पास के लिए, कुछ दिखावे के लिए जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि मंदिर का उद्देश्य ही गलत है।

सत्संग, भजन, प्रवचन—ये सब साधन हैं। परिवर्तन तब होता है जब इन्हें साध्य की ओर मोड़ा जाए।

यदि कोई व्यक्ति सत्संग से लौटकर उसी प्रकार का व्यवहार करे, जैसे पहले करता था—तो दोष सत्संग का नहीं, उस ग्रहण करने की क्षमता का है।

'जैसी भावना, वैसी मूरत'

रामचरितमानस की एक अमूल्य पंक्ति है—
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी।"

इसका अर्थ स्पष्ट है—आपके भीतर जैसी भावना है, आपको ईश्वर भी उसी रूप में मिलेंगे।
यदि आप सत्संग में जाकर केवल दूसरों की कमियों को देखते हैं, तो लाभ की बजाय अहंकार ही बढ़ेगा।

झगड़े क्यों होते हैं धार्मिक परिवारों में?

धार्मिकता का दिखावा करने वाले लोग जब धैर्य, समर्पण, क्षमा और प्रेम नहीं अपनाते, तब वह धर्म सिर्फ दिखावा बनकर रह जाता है।
अगर घर के हर सदस्य का मन खुद में उलझा हुआ है—तो सत्संग, भजन, कथा सिर्फ मनोरंजन की सामग्री बनकर रह जाती है।
और तब प्रश्न उठता है—क्या यह सब ढकोसला है?

नहीं। ढकोसला सत्संग नहीं है, हमारी समझ का दोष है। हम सुनते हैं, समझते नहीं।
हम गाते हैं, गहराई से महसूस नहीं करते।

और आप? क्या आपने स्वयं को टटोला?

अगर घर के लोग सत्संग से बदल नहीं रहे, तो क्या आपने अपने आचरण से कोई राह दिखाने की कोशिश की?
क्या आपने कभी यह पूछा कि आपके समय का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर बीत रहा है—उसका आपके जीवन पर क्या असर हुआ है?

परिवार के भीतर यदि युद्ध जैसी स्थिति बनी है, तो केवल त्याग और मार्गदर्शन ही इसे बदल सकते हैं, टिप्पणी और तानों से नहीं।

संदेश क्या है?

  1. धार्मिकता को जीना सीखिए, केवल निभाइए नहीं।

  2. सत्संग सुनिए, पर आत्ममंथन की भावना से।

  3. दूसरों को कोसने से पहले खुद को टटोलिए।

  4. भक्ति और व्यवहार—दोनों में संतुलन हो।

  5. परिवर्तन बाहर से नहीं, भीतर से शुरू होता है।

निष्कर्ष

भक्ति यदि हृदय से निकले तो वह जीवन का सबसे सुंदर मार्ग है।
पर यदि वह सिर्फ मुख से निकले और मन विषाक्त हो, तो भजन भी केवल शब्द रह जाते हैं, सत्संग केवल शोर।

आइए, सत्संग को केवल “सुनने” की प्रक्रिया न बनाएं, उसे “जीने” की प्रक्रिया बनाएं।

“सत्संग किसी को बदलता नहीं,
बदलने की चाह हो तो एक शब्द भी पर्याप्त है।”